कहानी संग्रह >> खाली कमरा खाली कमराआशा साकी
|
2 पाठकों को प्रिय 37 पाठक हैं |
आशा साकी की अठारह कहानियों का संग्रह
‘‘मन्नो बेटा...पैदा
करने को तो हम चार-चार पैदा कर लेते लेकिन जब मैं इस घर में आई तो तुम
चारों बड़े-बड़े थे। तुम ही सबसे छोटी जो सात-आठ साल की थी तो मुझे तो
बहुत लाज आती यह सोचकर कि इतने बड़े बच्चों में एक नन्हा बच्चा कैसा
लगता...? और फिर दीपू बेटे और कुन्तो बेटी की नफरत तो और भी बढ़ जाती
अपने बाबू जी के लिए। नौकरी पेशा तुम्हारे बाबू जी के कन्धों पर मैं और
बोझ भी तो नहीं बढ़ाना चाहती थी न। बस जी-जान से तुम सबको अपने ही बच्चे
मानकर अपना लिया मैंने। यह बात अलग है कि कुन्तो बेटी और दीपू बेटा मुझे
अब तक भी...।’’
कहते-कहते माँ चुप हो गई थीं। उसकी तो आँखें ही भर आई थीं माँ की बात
सुनकर
(इसी पुस्तक से)
अनुक्रम
फ़ासला
आज भी वह सोचता है तो उसे बहुत हँसी आती है स्वयं पर। थोड़ी खीझ और थोड़ा
आश्चर्य भी !
क्यों था वह ऐसा ? लोग क्या सोचते रहें होंगे उसके बारे में। इसीलिए...बस इसीलिए...उसकी इच्छा थी एक बार उन लोगों को अपने घर बुलाने की !
‘‘देखो...मेरी एक पुरानी दोस्त घर आ रही है अगले हफ़्ते। उसकी खातिरदारी बहुत बढ़िया ढंग से होनी चाहिए। किसी चीज में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए।’’
गुरपाल सिंह ने अपनी पत्नी से कहा था !
‘‘कौन दोस्त आ रही है जी...?’’ पत्नी ने पलटकर पूछा था !
‘‘आपने तो कभी आज तक उसका ज़िक्र नहीं किया ! जो एक दो अच्छे दोस्त हैं उन्हें तो मैं अच्छी तरह जानती हूँ। पंजाब में रहने वाले दो दोस्तों को भी जानती हूँ जो कभी-कभार आते हैं...परन्तु यह आपकी स्त्री दोस्त...? इसके बारे में तो कभी बताया नहीं आपने...। कोई खास दोस्त है क्या ?...कहाँ से आ रही है...?’’
‘‘अरे भई...इतने प्रश्न क्यों पूछ रही हो धर्मपत्नी जी...? बस एक पुरानी मित्र हैं मेरी...कॉलेज के जमाने की। क्लासमेट थी वह, उड़ीसा रहती थी। अब तो काफ़ी वक्त से विदेश में ही रह रही थी। पता लगा कि यहाँ आ रही है तो कह दिया घर आने के लिए। बहुत बड़े घर की है, रहने करने का अच्छा-सा इंतज़ाम कर देना।’’
पत्नी की स्त्री सुलभ आशंका का समाधान करते हुए कहा गुरपाल ने !
उसे पता है यद्यपि कि अब तो किसी मेहमान के आने पर भी विशेष रूप से तैयारी करने की जरूरत नहीं है उसके घर में। अचानक भी यदि कोई आ जाए तो उसे फाईव स्टार होटल वाला आराम और व्यवहार ही मिलेगा। लेकिन एक वक्त था जब उसे ख़ुद ही...
सोचकर एक विद्रूप-सी हँसी फैली जाती है उसके चेहरे पर।
वह पंजाब के एक बहुत ही पिछड़े से गाँव का रहने वाला था। घर में माँ, बापू जी, दो बहनें और एक भाई। सबसे बड़ा वही। गाँव में रहकर ही उसने शुरू की पढ़ाई की और फिर पास के छोटे से कस्बे में चार-पाँच किलोमीटर की दूरी पर एक ही स्कूल था, उसमें बारहवीं की। आगे की पढ़ाई के लिए वह कलकत्ता चला गया था।
गाँव के ही उसके एक मित्र का बड़ा भाई जो शहर में अपने मामा के पास रहकर ही पला बढ़ा था वह कलकत्ता के उस कॉलिज में नौकरी कर रहा था। उसी ने गाँव में रहते अपने छोटे भाई यानि उसके मित्र का दाख़िला करवा दिया था और उसके दोस्त के कहने पर उसका भी।
पहली बार वह गाँव से निकलकर इतने बड़े शहर में पहुँचा था। यूँ करना चाहिए कि उसने तो शहर ही पहली बार देखा था। उसका रहन-सहन, बातचीत सब कुछ गाँव-गँवई का था। अंग्रेजी तो छोड़ो हिन्दी तक उसे बोलनी नहीं आती थी।
कलकत्ता के जिस कॉलिज में पढ़ता था वह लड़के और लड़कियों का इकट्ठा कॉलिज था। कॉलिज भी इतना बड़ा कि कुछ दिन तक तो वह अपनी क्लास ही भूल जाया करता था। उसे पता ही नहीं लगता कि इतने ज्यादा गलियारों में से किस गलियारे से होकर उसकी कक्षा में जाना होता था।
‘‘गुरपाल...आपको मैं रोज ही देखती हूँ। शायद क्लास रूम भूल जाते हैं आप। दो-चार दिन यहीं आकर खड़े हो जाया करें। यहाँ से ही मैं ले जाया करूँगी कक्षा में अपने साथ।’’
‘‘ठीक है...?’’
उसने ‘‘हाँ’’ में केवल सिर ही हिलाया था। उसे तो धन्यवाद कहने का भी पता नहीं था।
यूँ तो कई लड़कियाँ उसके साथ पढ़ती थीं परन्तु उस लड़की ने ही इस बात पर ध्यान दिया था।
वह लड़की ‘‘प्रियंवदा’’ अक्सर ही उसकी मदद कर दिया करती थी। वह तो कई महीनों तक बस कुर्ते पाजामें में ही रहा था। कुर्ते पाजामें में ही क्लास में भी जाता रहा था। जाने चुपचाप-सी रहने वाली गहन गम्भीर-सी लड़की ने उसकी इतनी मदद क्यों की थी ? शायद उसका स्वभाव भी खिलंदड़ा न होकर गम्भीर-सा, चुप रहने का ही था...इसीलिए। अक्सर ही क्लास में जाने के वक्त वह गलियारे के मोड़ पर ही मिल जाती थी और उसे अपने साथ दूसरी तरफ से घूमकर आते गलियारे से (जिसमें जाने के लिए वह अक्सर ही भूल-भुलैयों में पड़ जाता था) कक्षा में ले जाती थी।
शायद उसने भाँप लिया था कि वह सीधा-सादा गाँव का रहने वाला देहाती इंसान है। यूँ उसने कई तरह से और भी सहायता की थी उसकी। मसलन उसे पाजामा छोड़कर पैन्ट पहनना सिखाया था। पैसे की उसकी तंगी को देखकर कभी-कभी वह आर्थिक रूप से भी सहायता कर दिया करती थी उसकी और फिर कॉलिज के बाद शाम के समय एक पार्ट-टाईम काम करने के लिए भी उसने ही कहा था ! एक दुकान में हिसाब-किताब देखने जैसा काम भी उसी की सहायता से मिला था।
यह आज से तीस-पैंतीस वर्ष पहले की बात है। घर में सभी छोटे भाई-बहिन अभी पढ़ ही रहे थे अकेले बापू जी की नौकरी के बलबूते पर ही घर चलता था। यद्यपि काम तो बापू जी ठेकेदारी का करते थे परन्तु न तो उन दिनों काम ही बहुत अच्छा था और न मिलने वाला पैसा ही बहुत बढ़िया था। तो भी यह बापू जी की ही हिम्मत थी कि उसे इतनी दूर आगे पढ़ने के लिए भेज दिया था।
वह एक बंगाली लड़की थी। उड़ीसा की रहने वाली प्रियंवदा नाम था उसका। उसे तो नाम भी अच्छी तरह लेना नहीं आता था उसका। कॉलिज में सब उसे प्रियंवदा कहते थे परन्तु वह उसे बिन्दू कहकर ही बुलाने लगा था।
वह बहुत हँसती थी उसके ‘बिन्दू’ कहने पर !
‘‘गुरपाल तुमने तो मुझे बंगालन से बनिया ही बना दिया। (असल में हमारी क्लास में एक लड़की का नाम बिन्दिया था जो गुप्ता थी) उसी के कारण उसने ऐसा कहा था !
‘‘गुरपाल...अब तो तीन साल हो गए तुम्हें इतने बड़े शहर में रहते और पढ़ते हुए। सैशन खत्म होने को है। अब तो शहरी बातचीत और शहरी रंग-ढंग आ जाना चाहिए तुम्हें और मेरा नाम ‘प्रियंवदा’ बोलना भी !
‘‘अच्छा अब मुझे बिन्दू नहीं बल्कि प्रियंवदा कहकर ही बुलाओ।’’ वह कहती।
वह फिर ठीक से बोल न पाता। एक तो शहर का नाम...वह भी इतना कठिन। उसे तो गाँव के नामों की ही आदत थी–सीतो, मीतो, गेजो, शब्बो वगैरह वह फर्राटे से बोलता था...लेकिन यह नाम...? फिर उसके ठीक से उच्चारण न कर पाने पर वह खूब-खूब हँसती थी। उसका साँवला रंग भी लाल हो जाता था।
‘‘अच्छा छोड़ो गुरपाल–तुम यूँ ही ठीक हो। वह कहती।
धीरे-धीरे वे दोनों कैन्टीन में बैठकर एक साथ कॉफी पिया करते। गुरपाल उससे अपने घर की बहुत-सी बातें करता। परन्तु एक विशेषता थी उसमें कि उसने गुरपाल की किसी भी कमी को लेकर कभी मजाक नहीं बनाया था। इसी कारण इतने सारे लड़के लड़कियों में उससे उसकी दोस्ती बहुत अच्छी और शानदार थी। अपने घर की कई बातें वह भी बताया करती थी कि घर में माँ है उसकी, बाबा हैं। वह अकेली औलाद है अपने माँ-बाप की। बाबा बहुत व्यस्त रहते हैं काम में। सारे घर को माँ ही देखती और सँभालती है। माँ बहुत अच्छी है...वगैरा-वगैरा।
फाईनल ईयर के पेपर हो चुके थे। सब लोग अपने-अपने घर जाने की तैयारी में थे। जाने से पहले प्रियंवदा ने अपने घर का पता देकर उसे आने के लिए कहा था !
‘‘गुरपाल–यह मेरे घर का पता है। कभी उड़ीसा घूमने की इच्छा हो तो जरूर आना।’’
उसने वह पता सँभालकर रख लिया था।
घर लौट आने पर वह एकदम खाली-खाली-सा हो गया था। काम-काज की तलाश शुरू करने से पहले उसने सोचा कि क्यों न उड़ीसा घूमकर आए वह। बिन्दू ने तो कहा भी था आने के लिए...। बस कुछ कपड़े डाले उसने बक्से में और पहुँच गया वह उड़ीसा।
ढूँढ़ता-ढाँढता जब वह घर पहुँचा प्रियंवदा के तो उसकी तो हिम्मत ही न हुई अन्दर जाने की। बातचीत में और स्वभाव से इतनी सरल और सादा लगने वाली लड़की इतने बड़े में रहती थी।
उसने तो सोचा था दो-तीन कमरों का घर होगा उसका जिसे उसकी माँ सँभालती होती जैसा कि उसने कहा था। परन्तु वह तो आश्चर्य से देखता ही रह गया उस महल जैसे घर को जिसके गेट पर गन लिए एक चौकीदार खड़ा था।
उसने अपना नाम गुरपाल बताकर चौकीदार के हाथ प्रियंवदा के लिए संदेशा भिजवाया अन्दर।
दो मिनट में ही प्रियंवदा भागती हुई आई...।
‘‘अरे गुरपाल...तुम...? कोई संदेशा नहीं...कोई...। कहते-कहते प्रियंवदा ने खुशी से उसका हाथ ही पकड़ लिया था।
‘‘गुरपाल–तुम कैसे हो ? घर में सब ठीक हैं न ? तुम्हारी माँ...बाबा...क्या कहते हो उन्हें...हाँ बाबू जी...। नहीं बाबू जी नहीं...बापू जी। उसने हँसकर कहा !
प्रियंवदा के साथ दो आदमी थे जिनमें से एक ने उसके हाथ से बक्सा पकड़ लिया था। दूसरा उसके साथ चल रहा था।
गुरपाल–यह तुम्हें तुम्हारा कमरा दिखा देगा। उसने साथ चल रहे छोटे कद के नौकर की ओर संकेत करके कहा !
‘‘तुम नहा-धोकर तरोताजा हो जाओ। दो दिन के थके होओगे। मैं चाय भिजवाती हूँ। पहले चाय पीकर जरा आराम कर लेना, फिर बातें करेंगे हम।’’ इतना कहकर उन दो व्यक्तियों के साथ उसे छोड़कर प्रियंवदा जाने कहाँ इतने बड़े घर में गायब हो गई थी।
उसने चलते हुए निगाह उठाकर देखा। अन्दर से भी बहुत ही बड़ा घर था। बिल्कुल राजाओं के महल जैसा। और भी कई नौकर-नौकरानियाँ इधर-उधर घूमते दिखाई दे रहे थे। अपने कमरे में आकर वह तो भौंचक्का-सा ही रह गया था। पाँच सितारा कमरे में इससे बढ़कर और क्या होगा ?
क्यों था वह ऐसा ? लोग क्या सोचते रहें होंगे उसके बारे में। इसीलिए...बस इसीलिए...उसकी इच्छा थी एक बार उन लोगों को अपने घर बुलाने की !
‘‘देखो...मेरी एक पुरानी दोस्त घर आ रही है अगले हफ़्ते। उसकी खातिरदारी बहुत बढ़िया ढंग से होनी चाहिए। किसी चीज में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए।’’
गुरपाल सिंह ने अपनी पत्नी से कहा था !
‘‘कौन दोस्त आ रही है जी...?’’ पत्नी ने पलटकर पूछा था !
‘‘आपने तो कभी आज तक उसका ज़िक्र नहीं किया ! जो एक दो अच्छे दोस्त हैं उन्हें तो मैं अच्छी तरह जानती हूँ। पंजाब में रहने वाले दो दोस्तों को भी जानती हूँ जो कभी-कभार आते हैं...परन्तु यह आपकी स्त्री दोस्त...? इसके बारे में तो कभी बताया नहीं आपने...। कोई खास दोस्त है क्या ?...कहाँ से आ रही है...?’’
‘‘अरे भई...इतने प्रश्न क्यों पूछ रही हो धर्मपत्नी जी...? बस एक पुरानी मित्र हैं मेरी...कॉलेज के जमाने की। क्लासमेट थी वह, उड़ीसा रहती थी। अब तो काफ़ी वक्त से विदेश में ही रह रही थी। पता लगा कि यहाँ आ रही है तो कह दिया घर आने के लिए। बहुत बड़े घर की है, रहने करने का अच्छा-सा इंतज़ाम कर देना।’’
पत्नी की स्त्री सुलभ आशंका का समाधान करते हुए कहा गुरपाल ने !
उसे पता है यद्यपि कि अब तो किसी मेहमान के आने पर भी विशेष रूप से तैयारी करने की जरूरत नहीं है उसके घर में। अचानक भी यदि कोई आ जाए तो उसे फाईव स्टार होटल वाला आराम और व्यवहार ही मिलेगा। लेकिन एक वक्त था जब उसे ख़ुद ही...
सोचकर एक विद्रूप-सी हँसी फैली जाती है उसके चेहरे पर।
वह पंजाब के एक बहुत ही पिछड़े से गाँव का रहने वाला था। घर में माँ, बापू जी, दो बहनें और एक भाई। सबसे बड़ा वही। गाँव में रहकर ही उसने शुरू की पढ़ाई की और फिर पास के छोटे से कस्बे में चार-पाँच किलोमीटर की दूरी पर एक ही स्कूल था, उसमें बारहवीं की। आगे की पढ़ाई के लिए वह कलकत्ता चला गया था।
गाँव के ही उसके एक मित्र का बड़ा भाई जो शहर में अपने मामा के पास रहकर ही पला बढ़ा था वह कलकत्ता के उस कॉलिज में नौकरी कर रहा था। उसी ने गाँव में रहते अपने छोटे भाई यानि उसके मित्र का दाख़िला करवा दिया था और उसके दोस्त के कहने पर उसका भी।
पहली बार वह गाँव से निकलकर इतने बड़े शहर में पहुँचा था। यूँ करना चाहिए कि उसने तो शहर ही पहली बार देखा था। उसका रहन-सहन, बातचीत सब कुछ गाँव-गँवई का था। अंग्रेजी तो छोड़ो हिन्दी तक उसे बोलनी नहीं आती थी।
कलकत्ता के जिस कॉलिज में पढ़ता था वह लड़के और लड़कियों का इकट्ठा कॉलिज था। कॉलिज भी इतना बड़ा कि कुछ दिन तक तो वह अपनी क्लास ही भूल जाया करता था। उसे पता ही नहीं लगता कि इतने ज्यादा गलियारों में से किस गलियारे से होकर उसकी कक्षा में जाना होता था।
‘‘गुरपाल...आपको मैं रोज ही देखती हूँ। शायद क्लास रूम भूल जाते हैं आप। दो-चार दिन यहीं आकर खड़े हो जाया करें। यहाँ से ही मैं ले जाया करूँगी कक्षा में अपने साथ।’’
‘‘ठीक है...?’’
उसने ‘‘हाँ’’ में केवल सिर ही हिलाया था। उसे तो धन्यवाद कहने का भी पता नहीं था।
यूँ तो कई लड़कियाँ उसके साथ पढ़ती थीं परन्तु उस लड़की ने ही इस बात पर ध्यान दिया था।
वह लड़की ‘‘प्रियंवदा’’ अक्सर ही उसकी मदद कर दिया करती थी। वह तो कई महीनों तक बस कुर्ते पाजामें में ही रहा था। कुर्ते पाजामें में ही क्लास में भी जाता रहा था। जाने चुपचाप-सी रहने वाली गहन गम्भीर-सी लड़की ने उसकी इतनी मदद क्यों की थी ? शायद उसका स्वभाव भी खिलंदड़ा न होकर गम्भीर-सा, चुप रहने का ही था...इसीलिए। अक्सर ही क्लास में जाने के वक्त वह गलियारे के मोड़ पर ही मिल जाती थी और उसे अपने साथ दूसरी तरफ से घूमकर आते गलियारे से (जिसमें जाने के लिए वह अक्सर ही भूल-भुलैयों में पड़ जाता था) कक्षा में ले जाती थी।
शायद उसने भाँप लिया था कि वह सीधा-सादा गाँव का रहने वाला देहाती इंसान है। यूँ उसने कई तरह से और भी सहायता की थी उसकी। मसलन उसे पाजामा छोड़कर पैन्ट पहनना सिखाया था। पैसे की उसकी तंगी को देखकर कभी-कभी वह आर्थिक रूप से भी सहायता कर दिया करती थी उसकी और फिर कॉलिज के बाद शाम के समय एक पार्ट-टाईम काम करने के लिए भी उसने ही कहा था ! एक दुकान में हिसाब-किताब देखने जैसा काम भी उसी की सहायता से मिला था।
यह आज से तीस-पैंतीस वर्ष पहले की बात है। घर में सभी छोटे भाई-बहिन अभी पढ़ ही रहे थे अकेले बापू जी की नौकरी के बलबूते पर ही घर चलता था। यद्यपि काम तो बापू जी ठेकेदारी का करते थे परन्तु न तो उन दिनों काम ही बहुत अच्छा था और न मिलने वाला पैसा ही बहुत बढ़िया था। तो भी यह बापू जी की ही हिम्मत थी कि उसे इतनी दूर आगे पढ़ने के लिए भेज दिया था।
वह एक बंगाली लड़की थी। उड़ीसा की रहने वाली प्रियंवदा नाम था उसका। उसे तो नाम भी अच्छी तरह लेना नहीं आता था उसका। कॉलिज में सब उसे प्रियंवदा कहते थे परन्तु वह उसे बिन्दू कहकर ही बुलाने लगा था।
वह बहुत हँसती थी उसके ‘बिन्दू’ कहने पर !
‘‘गुरपाल तुमने तो मुझे बंगालन से बनिया ही बना दिया। (असल में हमारी क्लास में एक लड़की का नाम बिन्दिया था जो गुप्ता थी) उसी के कारण उसने ऐसा कहा था !
‘‘गुरपाल...अब तो तीन साल हो गए तुम्हें इतने बड़े शहर में रहते और पढ़ते हुए। सैशन खत्म होने को है। अब तो शहरी बातचीत और शहरी रंग-ढंग आ जाना चाहिए तुम्हें और मेरा नाम ‘प्रियंवदा’ बोलना भी !
‘‘अच्छा अब मुझे बिन्दू नहीं बल्कि प्रियंवदा कहकर ही बुलाओ।’’ वह कहती।
वह फिर ठीक से बोल न पाता। एक तो शहर का नाम...वह भी इतना कठिन। उसे तो गाँव के नामों की ही आदत थी–सीतो, मीतो, गेजो, शब्बो वगैरह वह फर्राटे से बोलता था...लेकिन यह नाम...? फिर उसके ठीक से उच्चारण न कर पाने पर वह खूब-खूब हँसती थी। उसका साँवला रंग भी लाल हो जाता था।
‘‘अच्छा छोड़ो गुरपाल–तुम यूँ ही ठीक हो। वह कहती।
धीरे-धीरे वे दोनों कैन्टीन में बैठकर एक साथ कॉफी पिया करते। गुरपाल उससे अपने घर की बहुत-सी बातें करता। परन्तु एक विशेषता थी उसमें कि उसने गुरपाल की किसी भी कमी को लेकर कभी मजाक नहीं बनाया था। इसी कारण इतने सारे लड़के लड़कियों में उससे उसकी दोस्ती बहुत अच्छी और शानदार थी। अपने घर की कई बातें वह भी बताया करती थी कि घर में माँ है उसकी, बाबा हैं। वह अकेली औलाद है अपने माँ-बाप की। बाबा बहुत व्यस्त रहते हैं काम में। सारे घर को माँ ही देखती और सँभालती है। माँ बहुत अच्छी है...वगैरा-वगैरा।
फाईनल ईयर के पेपर हो चुके थे। सब लोग अपने-अपने घर जाने की तैयारी में थे। जाने से पहले प्रियंवदा ने अपने घर का पता देकर उसे आने के लिए कहा था !
‘‘गुरपाल–यह मेरे घर का पता है। कभी उड़ीसा घूमने की इच्छा हो तो जरूर आना।’’
उसने वह पता सँभालकर रख लिया था।
घर लौट आने पर वह एकदम खाली-खाली-सा हो गया था। काम-काज की तलाश शुरू करने से पहले उसने सोचा कि क्यों न उड़ीसा घूमकर आए वह। बिन्दू ने तो कहा भी था आने के लिए...। बस कुछ कपड़े डाले उसने बक्से में और पहुँच गया वह उड़ीसा।
ढूँढ़ता-ढाँढता जब वह घर पहुँचा प्रियंवदा के तो उसकी तो हिम्मत ही न हुई अन्दर जाने की। बातचीत में और स्वभाव से इतनी सरल और सादा लगने वाली लड़की इतने बड़े में रहती थी।
उसने तो सोचा था दो-तीन कमरों का घर होगा उसका जिसे उसकी माँ सँभालती होती जैसा कि उसने कहा था। परन्तु वह तो आश्चर्य से देखता ही रह गया उस महल जैसे घर को जिसके गेट पर गन लिए एक चौकीदार खड़ा था।
उसने अपना नाम गुरपाल बताकर चौकीदार के हाथ प्रियंवदा के लिए संदेशा भिजवाया अन्दर।
दो मिनट में ही प्रियंवदा भागती हुई आई...।
‘‘अरे गुरपाल...तुम...? कोई संदेशा नहीं...कोई...। कहते-कहते प्रियंवदा ने खुशी से उसका हाथ ही पकड़ लिया था।
‘‘गुरपाल–तुम कैसे हो ? घर में सब ठीक हैं न ? तुम्हारी माँ...बाबा...क्या कहते हो उन्हें...हाँ बाबू जी...। नहीं बाबू जी नहीं...बापू जी। उसने हँसकर कहा !
प्रियंवदा के साथ दो आदमी थे जिनमें से एक ने उसके हाथ से बक्सा पकड़ लिया था। दूसरा उसके साथ चल रहा था।
गुरपाल–यह तुम्हें तुम्हारा कमरा दिखा देगा। उसने साथ चल रहे छोटे कद के नौकर की ओर संकेत करके कहा !
‘‘तुम नहा-धोकर तरोताजा हो जाओ। दो दिन के थके होओगे। मैं चाय भिजवाती हूँ। पहले चाय पीकर जरा आराम कर लेना, फिर बातें करेंगे हम।’’ इतना कहकर उन दो व्यक्तियों के साथ उसे छोड़कर प्रियंवदा जाने कहाँ इतने बड़े घर में गायब हो गई थी।
उसने चलते हुए निगाह उठाकर देखा। अन्दर से भी बहुत ही बड़ा घर था। बिल्कुल राजाओं के महल जैसा। और भी कई नौकर-नौकरानियाँ इधर-उधर घूमते दिखाई दे रहे थे। अपने कमरे में आकर वह तो भौंचक्का-सा ही रह गया था। पाँच सितारा कमरे में इससे बढ़कर और क्या होगा ?
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book